राम सिया
ram
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यह कैसा खेल नियती का, कि आई विरह की बेला है। जा रही सिया घनघोर वन को, और राम देख रहा खड़ा अकेला है। एक राजा की रानी होकर भी समाज के तानों को सिय ने झेला है। उन कटु वचनों और अपवादों को, सुन रहा राम देखों खड़ा अकेला है। इस निष्ठुर नियती के कारण यह आई आज कैसी बेला है। एक दूजे के प्राण बसे थे जिनमें, उनसे विरह सिया राम ने झेला है। यह कैसा खेल नियती का, कि आई विरह की बेला है। जा रही सिया घनघोर वन को, और राम देख रहा खड़ा अकेला है
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